Sunday, July 21, 2013

गुरू की महिमा अपरम्पार है, गुरू प्राणी नहीं है, प्राणाधार है





वो तन में भी समाया है, वो मन में भी समाया है


जिधर देखूं उधर जलवा, उसी का ही नुमाया है


मेरा मुझमे नहीं कुछ भी, जो कुछ भी है उसी का है


मिटाया था कभी जिसने, उसी ने फिर बनाया है




उसी ने फिर बनाया है, बनाना काम है उसका


बनाने में कुशल है वो, बड़ा ही नाम है उसका


मेरी हस्ती उसी से है, मेरी मस्ती उसी से है


मेरे भीतर की बस्ती में मुक़द्दस धाम है उसका




मुक़द्दस धाम है उसका, अलौकिक धाम है उसका


दिव्य आभा से आलोकित, रूप अभिराम है उसका


ईसा उसका, ख़ुदा उसका, गुरू उसका, प्रभु उसका


नाम उसका नहीं कोई, फिर भी हर नाम है उसका




फिर भी हर नाम है उसका तो नामों में भटकना क्यों ?


शिखर जब हों मयस्सर तो पड़ावों पर अटकना क्यों ?


लटकना क्यों ख़ुदी के दार पर, बच कर निकल जाएँ


फिसल कर कांच की तरह बिला वजह चटकना क्यों ?




बिलावजह चटकना क्यों, है हासिल क्या बिखरने में


मस्सर्रत ज़िन्दगानी की चमकने में - निखरने में


हज़ारों हाथ से करता है रखवाली वो पग - पग पर


मगर हम हैं लगे हर दम, उसी रब को अखरने में




उसी रब को अखरने में गुज़ारी है हयात अपनी


सजाई है यहाँ जिसने ये सारी क़ायनात अपनी


गये - गुज़रे हैं हम कितने, उसी को भूल बैठे हैं


जो करता है निगहबानी, यहाँ दिन और रात अपनी



शत शत नमन गुरूदेव


-अलबेला खत्री 

 गुरू की महिमा अपरम्पार है, गुरू प्राणी नहीं है, प्राणाधार है

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